जड़-चेतन
Monday, 27 August 2018
अमर बेल ...
अमर बेल ...
अनंत विस्तार ले चुकी
धीरे-धीरे समाज को
खुद में समा चुकी
अमर बेल के करीब से
आज फिर____
गुजरना हुआ
उन्मादित है ! आह्लादित है !
प्रमादित है, अमर बेल ! !
हरियल पेड़ की
दरकार भी नहीं अब उसे !
जाति धर्म भाषा की
जहरीली लताएँ___
पोषित कर रही हैं अब उसे !
अदृश्य है अमूर्त है
अशांति आर्तनाद !
मासूमों की सिसकियाँ
अबलाओं का रुदन !!
उसका मूर्त रूप है
समाज के ऊपर
विस्तार ले रही है अमर बेल
उन्मादित है !____
आह्लादित है अमर बेल
समाज को जकड़ती
फिरकों में बांटतीं
विस्तार ले रही हैं___
अनेकों अमर बेल !
..... विजय जयाड़ा
हिमाचली बुरांस
हिमाचली बुरांस
हिमाचल प्रदेश की चांशल पहाड़ी हरियल बुग्याली वस्त्र पहने मनमोहक लग रही थी .. हरे वस्त्रों के ऊपर बुरांस (Rhododendron) के खिले फूलों की रंगीन चुनरिया ओढ़े पहाड़ियों की चित्ताकर्षक अनुपम छटा देखकर मन मयूर नाच उठा ...
होंठ बरबस गुनगुनाने लगे ... दिल कहे रुक जा रे रुक जा... यहीं पर कहीं.....
बुरांस के फूल का ये रंग मैंने पहली बार देखा ! स्वाद चखा तो इस फूल का स्वाद भी कुछ अलग था ! यहाँ यह बुरांस प्रजाति वृक्ष की बजाय झाड़ी रूप में विकसित है !!
उत्तराखंड में उगने वाले जिस बुरांस को अब तक देखा था उस बुरांस में और इस बुरांस में समरूपता यही थी कि पुष्प विन्यास और पत्तियां एक सी ही हैं.
सुर्ख लाल बुरांस को कवियों ने अपने काव्य में जहाँ एक ओर वीरोचित उपमाओं से नवाज़ा है वहीँ ये बुरांस शालीन व सौम्य अहसास देता प्रतीत हुआ..
हालांकि परिस्थिति अनुरूप अनुकूलन जीवों की विशेषता अवश्य है ... लेकिन अपनी जड़ों से जुड़े रहना भी उतना ही महत्वपूर्ण है.
उत्तराखंड में उगने वाले जिस बुरांस को अब तक देखा था उस बुरांस में और इस बुरांस में समरूपता यही थी कि पुष्प विन्यास और पत्तियां एक सी ही हैं.
सुर्ख लाल बुरांस को कवियों ने अपने काव्य में जहाँ एक ओर वीरोचित उपमाओं से नवाज़ा है वहीँ ये बुरांस शालीन व सौम्य अहसास देता प्रतीत हुआ..
हालांकि परिस्थिति अनुरूप अनुकूलन जीवों की विशेषता अवश्य है ... लेकिन अपनी जड़ों से जुड़े रहना भी उतना ही महत्वपूर्ण है.
मरुभूमि का कल्पतरु .. खेजड़ी
मरुभूमि का कल्पतरु .. खेजड़ी
यात्रा अनुक्रम में जोधपुर, राजस्थान जाना हुआ. दर्शनीय स्थल भ्रमण के साथ-साथ प्रकृति को करीब से देखने की ललक वशात मरुभूमि के “ कल्प तरु “ खेजड़ी वृक्ष को करीब से देखने और उसके महत्व को जानने की विशेष जिज्ञासा थी.
वैज्ञानिक नाम "प्रोसेसिप-सिनेरेरिया" से जाने वाले और 4-9 मीटर तक ऊंचाई तक बढ़ने वाले खेजड़ी वृक्ष को "राजस्थान का सागवान", "रेगिस्तान का गौरव" अथवा " थार का कल्पवृक्ष " भी कहा जाता है। " राजस्थान सरकार द्वारा इस वृक्ष के सरंक्षण व संवर्धन हेतु खेजड़ी को वर्ष 1983 में राज्य वृक्ष घोषित किया गया.
अपेक्षाकृत ऊंचाई में कम तथा इमली व बबूल की तरह पत्तियों वाला कांटेदार खेजड़ी, मरुभूमि के जन-जीवन की जीवन रेखा है. इस वृक्ष के हर भाग का भौतिक उपयोग तो है ही साथ ही धार्मिक कार्यों में अग्निगर्भा व शमी नाम से खेजड़ी की लकड़ी व पत्तियों का हवन इत्यादि में उपयोग किया जाता है.
लवणीय मृदा में तीन मीटर तक गहरी जड़ें भूमि में मृदा अपरदन को रोकती हैं और मरु विस्तार को रोकने में सहायक हैं. वृक्ष की विशेषता यह भी है की जिस खेत में खेजड़ी का वृक्ष होता है वहां फसल अच्छी होती है. इस वृक्ष की दीर्घ जीविता का अनुमान इसी बात से हो जाता है कि वैज्ञानिकों ने खेजड़ी के वृक्ष की कुल आयु 5000 वर्ष मानी है. मांगलियावास गाँव, अजमेर, राजस्थान में खेजड़ी के 1000 वर्ष पुराने 2 वृक्ष भी मिले है.
माना जाता है कि खेजड़ी के पेड़ पर ही अज्ञातवास के अंतिम चरण में पांडवों ने अपने अस्त्र-शस्त्र छिपाए थे. हैं. इसी प्रकार लंका विजय से पूर्व भगवान राम द्वारा शमी (खेजड़ी) के वृक्ष की पूजा का उल्लेख मिलता है
जहाँ मैं खड़ा हूँ यह स्मारक स्थान उसी प्रेरक व ऐतिहासिक खेजड़ली गाँव के अंतर्गत है जहाँ खेजड़ी के सरंक्षण हेतु राज्य में सर्वप्रथम रामो जी बिश्नोई की पत्नि अमृतादेवी के द्वारा सन 1730 में बलिदान दिया गया. यह बलिदान भाद्रपद शुक्ल दशमी को जोधुपर के खेजड़ली गाँव के 363 लोगों ने खेजड़ी के कटान को रोकने के लिए पेड़ों से चिपक कर दिया गया. इस आन्दोलन को ही प्रथम चिपको आन्दोलन माना जाता है इस बलिदान के समय जोधपुर का शासक अभय सिंह था. अभय सिंह के आदेश पर गिरधरदास के द्वारा लोगों 363 (69 महिलाओं व 294 पुरुषों) की हत्या कर दी गई. बिश्नोई सम्प्रदाय द्वारा दिया गया यह बलिदान साका/खडाना कहलाता है. 12 सितम्बर को प्रत्येक वर्ष खेजड़ली दिवस के रूप में मनाया जाता है. इस आन्दोलन के प्रभाव से आज भी राजस्थान में कई गाँव ऐसे हैं जहाँ के लोग हरे पेड़ नहीं काटते.विश्नोई संप्रदाय के लोगों में वृक्ष मित्र होने के कारण मृतक को दफ़नाने की प्रथा है..
जेठ के महीने में भी हरा-भरा रहने वाला बहु उपयोगी खेजड़ी रेगिस्तान में गर्मियों में जब जानवरों के लिए धूप से बचने का कोई सहारा नहीं होता तब यह पेड़ छाया देता है. इसकी छाल को खांसी, अस्थमा, बलगम, सर्दी व पेट के कीड़े मारने के काम में लाते हैं. इसकी पत्तियां राजस्थान में पशुओं का सर्वश्रेष्ठ चारा हैं.
खेजड़ी का फूल मींझर और फल सांगरी कहलाता है, 14- 18 प्रतिशत प्रोटीन वाली इन फलियों से सब्जी बनाई जाती है. सांगरियों को कच्चा तोड़कर उबालकर सुखा लिया जाता है| सुखी फलियों को सूखे केर व कुमटियों के साथ मिलाकर ताजा कच्ची सांगरी से भी स्वादिष्ट शाही सब्जी बनाई जाती है. फल सूखने पर खोखा कहलाता है जो सूखा मेवा है. इसकी लकडी मजबूत होती है जो किसान के लिए जलाने और फर्नीचर बनाने के काम आती है.
सोचता हूँ अन्य वृक्षों की लकड़ियों की अपेक्षा खेजड़ी लकड़ी के उच्च ज्वलन ताप के कारण ही खेजड़ी को शास्त्रों में “ अग्नि गर्भा “ कहा गया होगा ! इस वृक्ष की जड़ से हल बनता है. अकाल सी स्थिति के समय रेगिस्तान के आदमी और जानवरों का यही एक मात्र सहारा है। सन 1899 में दुर्भिक्ष अकाल पड़ा था जिसको छपनिया अकाल कहते हैं, उस समय रेगिस्तान के लोग इस पेड़ के तनों के छिलके खाकर जिन्दा रहे.
बुजुर्गों से बात करने पर ज्ञात हुआ कि गुजरे समय में खेतों में इतने अधिक वृक्ष हुआ करते थे कि खेतों में हल लगाना मुश्किल कार्य था लेकिन आज स्थिति अलग है ! खेजड़ी के पेड़ कहीं-कहीं व दूर-दूर ही दिखाई पड़ते हैं. आज खेजड़ी का रोपण, सरंक्षण व संवर्धन की त्वरित आवश्यकता है नहीं तो मरू भूमि के कल्प तरु, खेजड़ी का लुप्त हो जाना अवश्यम्भावी है.
Sunday, 15 May 2016
पहाड़ का मालवाहक जहाज ...
पहाड़ का मालवाहक जहाज ...
अथ श्री खच्चर उवाच ! .. एक सहज संवाद
खाड़ी से मौण गाँव की ओर 13 किमी. चलने के बाद चढ़ाई लिए, कच्ची पक्की सड़क से गुजरना हुआ। सुहावने मौसम में कुछ देर सुस्ताने की गरज से बाइक रोकी तो सड़क किनारे घास चरते इस सजे-धजे, ह्रष्ट-पुष्ट गबरु जवान, खच्चर (Mule) पर नजर पड़ी. मालिक अपने मोबाइल पर मस्त था तो सीधे ही खच्चर (Mule) महाशय से मुखातिब हुआ !
बातचीत शुरू हुई, काम धंधे के बारे में पूछा, जनाब के चेहरे पर संतोष मिश्रित चिंता उभर आई ! बोले " सड़क निर्माण और NGT के आदेशों से काम कुछ कम है लेकिन फिर भी गुज़र-बसर हो ही रही है , दिन भर मेहनत करके 600 रुपये तक कमा लेता हूँ " . अंतरंगता बढ़ने पर खुलकर बात शुरू हुई. महाशय दिल का दर्द बयां करते हुए कहने लगे .. " पहाड़ों पर जहाँ कोई अन्य यातायात का साधन नहीं पहुंच पाता वहाँ हम विपरीत मौसम में भी पहाड़ी दुर्गम ऊबड़-खाबड़, संकरे रास्तों पर अपनी जान हथेली पर रखकर चलते हैं और बिना थके सवारी और सामान दोनों को सुरक्षित पहुंचा देते हैं ! लेकिन फिर भी हमें घोड़ों की तरह सम्मान नहीं मिलता ! हमें अलग ही नाम दे दिया है .. खच्चर !! बात यहीं तक सीमित होती तो चल जाता ! लेकिन जब किसी मंदबुद्धि को व्यंग्य में “ खच्चर “ कहा जाता है तो हमारी आत्मा बहुत दुखती है. गधों से तो हमें ज्यादा अकल होती है कि नहीं !!" खच्चर महाशय शिकायती लहजे में आँखें तरेरते हुए बोले ! मैंने हमदर्दी में सिर हिलाया और चुपचाप सुनने में ही अपनी भलाई समझी ! आगे बोले .. " मगर जब हाड–तोड़ मेहनती इंसान को “ खच्चर की तरह काम करने वाला “ की उपमा दी जाती है तो हमें खुद के खच्चर होने पर गर्व भी होता है।"
लगे हाथों अपनी " वैल्यू " जताते हुए यह भी बता दिया कि मालिक मुझे 90,000 रुपये में खरीदकर लाया है।
अपनी ताकत के बारे में जनाब ने बताया कि उनका वजन 450 किग्रा तक होता है और अपने वजन का 30% तक भार आसानी से ले जा सकते हैं। साथ ही अपनी सुरक्षा में दुश्मन को आगे -पीछे -दाएँ -बाएं, हर दिशा में ताबड़तोड़ लतिया कर धूल भी चटा सकते हैं।
आगे बात चली तो जनाब घोड़े से अपनी तुलना करते हुए कुछ तन कर कहने लगे “ बेचारा घोडा तो 25-30 साल तक ही तो जीवित रह पाता है ! हम तो जीवन की सिल्वर जुबली भी मना लेते हैं ! “
आगे कहते हैं " रही बात अपनी संख्या बढाने की !!.. तो हम इसमें दिलचस्पी नहीं रखते ! पिछले 500 सालों में मात्र 60 ऐसे मौके आये जब मादा खच्चर ने बच्चे को जन्म दिया हो “
देश की सीमाओं की सुरक्षा की बात चली तो खच्चर महाशय गर्व से कहने लगे. “ हम देश की सीमाओं की रक्षा किसी सिपाही की ही तरह करते हैं, हाँ इतना जरुर है कि सेना में हमारे खान-पान की और देखभाल की व्यवस्था बहुत अच्छी होती है वहां हमें 26 किमी. से ज्यादा लगातार नही चलना पड़ता और हमारी पीठ पर 72 किग्रा, वजन से ज्यादा बोझ नहीं लादा जाता है.”
खैर, अब हमने जनाब से बिरादरी की उपलब्धियों पर सवाल दागा. चरना छोड़ मुझसे सीधे मुखातिब होकर बोले “ हमारे बिरादर द्वारा दुनिया के किसी देश की सेना में सबसे लम्बी सेवा करने का विश्व रिकार्ड, हमारे पकिस्तानी बिरादर के नाम था, लेकिन हमारे हिन्दुस्तान के “ पैडुगी “ नाम के बिरादर ने सेना में 28 साल से अधिक सेवा करके उस रिकार्ड को ध्वस्त कर दिया औए गिनीज बुक में अपना नाम दर्ज करवाकर हमारा और हिन्दुस्तान का गौरव बढाया “
सियासत पर बात चलने पर जनाब मायूस होकर बोले, " हालिया "शक्तिमान" से किए गए अमानवीय व्यवहार के बाद हमारी बिरादरी की घोड़ों जैसा सम्मान पाने की ख्वाहिश भी अब कुंद पड़ गई है ! हम ऐसे ही भले हैं !"
मुझे आगे जाना था तो मैंने विदा लेने के अंदाज में कहा, " खच्चर भाई ! अब चलता हूँ इस तरफ फिर कभी आना हुआ तो अवश्य मिलेंगे. “ ... “खच्चर “ संबोधन सुनते ही जनाब भड़कने ही वाले थे कि मैनें भूल सुधार करते हुए तुरंत महाशय की शान में इजाफा करते हुए कहा. ओह ! सॅारी !! आप खच्चर नहीं सही मायने में “ पहाड़ के जहाज “ हैं, फिर मिलेंगे तो विस्तार से बात करेंगे अभी जल्दी में हूँ।
अब " पहाड़ के जहाज " ने खुश होकर गर्दन में लटकी घंटियाँ बजाकर मुझे अलविदा कहा और मैं अपने गंतव्य की ओर चल दिया .
बिन पानी जग सून !
बिन पानी जग सून !
उत्तराखंड में आजकल जहाँ एक ओर स्थानीय निवासी पेय जल समस्या से जूझ रहे हैं वहीँ ऋषिकेश-चंबा मार्ग पर मर्च्वाड़ी गाँव के पास सड़क किनारे जीविकोपार्जन के लिए झोपड़ी में चाय-पान की दुकान चलाने वाले श्री भगवती प्रसाद भट्ट जी ने बारहों मास के लिए पानी का, सीमित ही सही मगर समाधान निकाल लिया है.
सफ़र में विश्राम का मन हुआ ! ज्यों ही इस झोपडी के पास पानी देखकर बाइक रोकी, भट्ट जी दुकान से बाहर आकर हमसे मुखातिब हुए. हालांकि जल संस्थान ने पाइप लाइन बिछायी हुई हैं लेकिन भीषण गर्मी में अधिकतर चूक गयी हैं. आस-पास कहीं पानी की व्यवस्था न थी तो सड़क किनारे पेड़ पर लटकते प्लास्टिक पाइप से बहते स्वच्छ शीतल जल को देखकर आश्चर्य हुआ !
चाय के साथ इस पेय जल के मूल श्रोत के बारे में बात चली तो भट्ट जी ने बतया कि इस जगह से डेढ़ किमी. ऊपर पहाड़ी पर उस स्थान से जहाँ जल संस्थान द्वारा इस बहते पानी का कोई उपयोग नहीं, हार्ड प्लास्टिक पाइप द्वारा पानी यहाँ तक ला पाए है अब यहाँ पर गर्मियों में जब आसपास जल संस्थान द्वारा बिछाई गयी पाइप लाइनों में पानी आना बंद हो जाता है तो आस पास के ग्रामीण इसी जगह से पानी भरकर ले जाते हैं, गुमन्तु गुर्जर मवेशियों के साथ इस जल श्रोत के पास ही डेरा डालते हैं, पर्यटक सुस्ताने के लिए अपनी गाडी रोककर शीतल व शुद्ध जल पान का आनंद लेते हैं, चालक अपनी गाडी भी धोते हैं, स्वयं भोजन बनाकर खाने वाले यात्री अपना भोजन बनाने के लिए इसी स्थान को चुनते हैं.
पहाड़ों पर गाँव तक पेय जल आपूर्ति के उद्देश्य से सरकार द्वारा जल संस्थान के माध्यम से जल संरक्षण व संचयन पर काफी व्यय किया जाता है लेकिन इसके बावजूद भी गर्मियों में पेयजल समस्या रूपी सुरसा मुंह फैलाये रहती है.
मनरेगा योजनान्तर्गत ग्रामीण क्षेत्रों में पक्के रास्तों के निर्माण के बाद अब गर्मियों में पानी की किल्लत झेलते गाँवों में उचित स्थान पर वर्षा जल संचयन में स्थानीय निवासियों का सहयोग लेकर पेयजल समस्या निवारण को प्राथमिकता दी जानी चाहिए।
हालांकि जल विशेषज्ञों की कमी नहीं !! लेकिन अपने यात्रा अनुभवों के आधार पर सोचता हूँ कि यदि राजस्थान व जल न्यूनता वाले अन्य क्षेत्रों की तरह वर्षा ऋतु में पहाड़ों से व्यर्थ बहने वाले जल को ऊंचे पहाड़ी स्थानों पर ही और ग्राम स्तर पर ग्रामीणों के सहयोग से बड़ी-बड़ी टंकियां बनाकर संग्रहण व्यवस्था की जाय तो ये संचित जल, गर्मियों में निर्बाध पेयजल आपूर्ति में सहायक हो सकता है फलस्वरूप वर्षा जल से होने वाले भूमि कटाव व वन संपदा हानि में कमी आ सकती है. साथ ही ये संग्रहित जल हर साल जंगलों में लगने वाली आग को बुझाने के उपयोग में भी लाया जा सकता है।
जल संरक्षण व संचयन वक्त की पुकार भी है
क्योंकि “ जल है तो कल है और बिन पानी जग सून ! “
Tuesday, 26 April 2016
पहाड़ !
पहाड़ धरा पर एक उन्नत भूखंड मात्र ही नहीं है बल्कि पवित्र निश्छल प्रेरक समष्टि भी है जो साधक को झंझावातों में ईमानदारी व जीवट बनाए रखकर अडिग व अविचलित रहते हुए परिश्रम के मार्ग पर चलकर साध्य तक पहुंचने की प्रेरणा भी देता है।
इसे पहाड़ का दुर्भाग्य कहा जाय !! या नीति निर्धारकों की अदूरदर्शिता !! लेकिन मर्मस्पर्शी कटु सत्य है कि आजादी के कई दशक बाद भी .. " पहाड़ का पानी और पहाड़ की जवानी, अब तक भी पहाड़ के काम नहीं आ पाये हैं !! ..
इस उक्ति को बदलने के संजीदगी भरे वादे किए गए मगर ...
उक्ति बदले या न बदले ! फिलहाल ! अपना भाग्य बदलना "भाग्य विधाताओं" की प्राथमिकताओं में है ! ये जगत् जाहिर सत्य है!!
हालिया लोकतंत्र महापर्व (चुनाव) मनाए लगभग दो साल हो लिए ! अब शायद ! नए महापर्व की आहट पर कोई नई "सार्थक" पहल हो !!
मगर पहाड़ न निराश है ! न हताश !! न कुंठित ही है !!! अडिग है और निरंतर अपना सहज धर्म निभा रहा है।
फिलहाल, भीषण गर्मी में पहाड़ के रस से तर, इस प्राकृतिक स्रोत के शुद्ध जल से गले को तर कर लिया जाए !!
पहाड़ पर रात का सजग-समझदार व बहादुर प्रहरी : भोटिया कुत्ता
स्माइल प्लीज़ ...
हालांकि दुआधार में अभी शाम के समय मौसम सुहावना है मगर ये महाशय गर्मी से परेशान से दिख रहे हैं !!.
ठंडी जलवायु में रहने वाले, गंभीर स्वभाव के वफादार भोटिया प्रजाति के कुत्ते, अनावश्यक भौं-भौं या कुं-कूं किए बिना पहाड़ पर रात के सजग-समझदार व बहादुर प्रहरी हैं. ये अकेले ही बाघ से टक्कर लेने की हिम्मत रखते हैं और अगर दो हों तो बाघ जैसे बुद्धिमान व बलशाली जानवर को धराशायी कर देने की कुव्वत भी रखते हैं.
भेड-बकरी पालने वाले घुमंतू लोग, जिन्हें गद्दी कहा जाता है इन भोटिया कुत्तों को अपनी व बकरियों की सुरक्षा की दृष्टि से सदैव अपने साथ रखते हैं. ये कुत्ते भेड़-बकरियों के झुण्ड के आगे-पीछे और दायें-बाएं, स्वाभाविक सुरक्षा व्यूह रचना में अपना-अपना मोर्चा संभाले साथ-साथ चलते रहते हैं.
मौसम के अनुसार घुमंतू गद्दी लोगों का अपनी बकरियों के झुण्ड के साथ ठन्डे स्थानों की तरफ प्रवास जारी रहता है, एक ओर ठन्डे स्थान भेड़-बकरियों के शरीर क्रिया के अनुकूल होते हैं वहीँ व्यावसायिक दृष्टि से महत्वपूर्ण भेड़ों के शरीर पर महीन ऊँन, बहुत ठन्डे स्थानों पर ही उग पाती है.
गद्दी लोग बकरियों के झुंडों को लेकर साथ-साथ चलते हैं लेकिन ये भोटिया कुत्ते सैकड़ों भेड़-बकरियों के अलग-अलग झुंडों में भी अपने झुण्ड की सैकड़ों भेड़-बकरियों को बखूबी पहचानते हैं. क्या मजाल जो कोई इनके झुण्ड की बकरियों, सामान या गद्दियों के बच्चों को हाथ लगा सके ! ऐसा करने पर बिना किसी पूर्व चेतावनी के उस व्यक्ति या जानवर पर तुरंत आक्रमण कर सकते हैं !
गद्दियों की विशेष सांकेतिक आवाज को समझने वाले ये कुत्ते विला-वज़ह न भौंकते हैं ! न आक्रमण करते हैं !!
मैंने भोटिया कुत्तों को कई वर्ष पाला है इसलिए इनकी आदतों व व्यवहार से वाकिफ हूँ। इनकी वफादारी सजग पहरेदारी पर स्वयं प्रत्यक्ष अनुभूत कई रोचक किस्से भी हैं .. प्रसंग आने पर फिर कभी ! फिर भी कहूंगा कि बकरियों के साथ शांत व मस्त चाल में चलते इन भोटिया कुत्तों से सावधान रहने में ही भलाई है !!
Thursday, 21 April 2016
सेवा और सेवा के अलग-अलग स्वरुप !!
सेवा और सेवा के अलग-अलग स्वरुप !!
आधुनिक जीवन शैली में एक ओर महंगे विदेशी नस्ल के कुत्तों को पालना, सेवा की तुलना में स्व वैभव प्रदर्शित करने का जरिया अधिक बनता जा रहा है वहीँ मानव तिरस्कार झेलते भोजन की तलाश में सड़कों पर आवारा घूमते देशी नस्ल के कुत्ते बहुतायत में देखे जा सकते हैं जो कई बार परेशानी का सबब भी बन जाते हैं.हमारे आध्यात्मिक दर्शन व संस्कृति में कण-कण में और हर जीव में ईश्वर का अंश व वास माना गया है. इजराइल से आई ये तीन उम्रदराज पर्यटक महिलाएं उसी दर्शन को मूर्त रूप में चरितार्थ करती जान पड़ती हैं.
राम झूला से लक्ष्मण झूला की तरफ बढ़ते हुए गंगा किनारे भीषण गर्मी में एक बीमार आवारा कुत्ते की ग्लूकोज लगाकर सेवा में मग्न, पशु चिकित्सा से जुडी इन तीन इजराइली महिलाओं ने बरबस ही ध्यान आकर्षित कर दिया !! जानकारी लेने पर पता लगा कि ये इस कुत्ते की कई दिनों से लगातार चिकित्सा कर रही हैं. केवल इस कुत्ते की ही नहीं ! बल्कि अपने अन्य साथियों के साथ मिलकर, अपने वतन से बहुत दूर, प्रचार, सरकारी अनुदान या दान आदि की बिना चाहत के, इस धार्मिक व पर्यटन क्षेत्र के हर आवारा बीमार कुत्ते की पिछले तीन माह से व्यक्तिगत रूप से नि:स्वार्थ चिकित्सा कर रही हैं. सोचता हूँ पशु सेवा के माध्यम से ये अप्रत्यक्ष रूप से मानव सेवा ही है .
विडंबना जानिए ! विदेशियों के इस पशु सेवा भाव में व्यावसायिक मानसिकता रखने वाले कुछ स्थानीय लोगों ने अपनी आमदनी का जरिया भी खोज लिया है ! इस क्रम में कुछ बाबा टाइप व कुछ स्थानीय लोगों ने आवारा कुत्ते पाल लिए हैं. विदेशियों को आकर्षित करने के लिए ये लोग विदेशियों के सामने पाल्य कुत्ते की सेवा करने का खूब ढोंग करते हैं !! विदेशी इस सेवा भाव के छलावे में आकर मालिक को कुत्ते की सेवा के लिए खूब धन देते हैं ! लेकिन विडंबना !! विदेशियों के स्वदेश लौटते ही ये स्वार्थी लोग उन कुत्तों को फिर कहीं दूर आवारा छोड़ देते हैं !! शायद ये लोग भूल जाते हैं कि इस तरह के आचरण से विदेशों में हमारी संस्कृति व सभ्यता को लेकर गलत संदेश भी जाता है !
Wednesday, 20 April 2016
जख्या
The Great Himalayan
TADKA.." JAKHYA "" जख्या "
" जख्या "....वानस्पतिक नाम ..Cleome viscose ......इसे " तड़कों का राजा " कहें तो अतिशयोक्ति न होगी ...आकार में सरसों के दानों से कुछ छोटा होता है पहाड़ी इलाकों में अपेक्षाकृत कुछ गर्म स्थानों पर खेतों की मेंड़ पर या निर्जन जगह पर इसके पौधे अपने आप हर साल उग जाते है. मैंने तो यहाँ दिल्ली में इसको गमले में उगाया है ... साल भर इसके बीज का तड़का ...खास कर बिना रस वाली सब्जियों जैसे उबले आलू,सीताफल, हरी सब्जियों का स्वाद बढाता रहता है..लोग स्वादानुसार कई सब्जियों व दालों में इसका तड़का पसंद करते हैं..विशेषता ये भी है कि यदि लापरवाही के कारण जल भी जाए तो स्वाद और भी अच्छा महसूस होता है...मेरे कई मैदानी क्षेत्रों के मित्रों ने इसका स्वाद चखा ...सभी इसके मुरीद हो गए ....उत्तराखंड से उनके लिए " जख्या " लाना नही भूलता हूँ ..ये रखे-रखे ख़राब भी नही होता...उत्तराखं
Wednesday, 13 April 2016
चंपा ..भँवर न आयें पास
चंपा ..भँवर न आयें पास....
विद्यालय भवन के प्रथम तल पर हमने अपनी कक्षा के बाहर 10-12 बड़े गमलों में कुछ सज्जाकार और कुछ फूल वाले पौधे लगाए हैं जिनकी देखभाल मेरी कक्षा के बच्चे स्व सुविधानुसार स्वेच्छा से करते है.आज सुगंध बिखेरते खूबसूरत चंपा (Plumeria) के खिले हुए पुष्प गुच्छ ने अपनी तरफ आकर्षित कर दिया...कामदेव के पाँच फूलों में गिने जाने वाले परागहीन, सुगंध बिखेरते चंपा के फूल पर भँवरे और मधुमक्खियाँ नहीं बैठती इस सम्बन्ध में पौराणिक कथाओं में कुछ इस तरह कहा गया है..
चम्पा तुझमें तीन गुण-रंग रूप और वास,
अवगुण तुझमें एक ही भँवर न आयें पास..
रूप तेज तो राधिके, अरु भँवर कृष्ण को दास,
इस मर्यादा के लिये भँवर न आयें पास..
अवगुण तुझमें एक ही भँवर न आयें पास..
रूप तेज तो राधिके, अरु भँवर कृष्ण को दास,
इस मर्यादा के लिये भँवर न आयें पास..
Saturday, 2 April 2016
सबका प्यारा, नीम मेरा..
सबका प्यारा, नीम मेरा..
सरसराहट के साथ !!
पीली पत्तियों का
मेरे ऊपर बरसना !!
रुकने को मजबूर करती
प्यारे नीम की ये अदा !!
लम्बे समय से
संवाद नही हुआ था नीम से मेरा !!
संकोच था बहुत !!
हिम्मत करके पूछा नीम से
“कहो नीम !! कैसे हो ??”
हठ पुरानी अब भी
बरकरार थी नीम में
बालहठ मिश्रित नाराजगी
साफ झलक दिख रही थी नीम में
समेट टहनियों को
बतलाने लगा,
मन के उद्गारों को
इस तरह सुनाने लगा !
बात करते नहीं
पास से गुज़रते हुए ?
आपने ही तो उगाया था
मुझको प्यार से.
गुजरते हो जब भी याद आता है
मुझको बचपन मेरा !!
दातुन करने को
लोगों का तब
मेरी टहनियों को ले जाना !
क्रूर हाथों की हद से
बचाने की कोशिश में
आपका टहनियों को,
सलीखे से ऊँचा बांधना !
खाल मेरी नोंच कर
निर्दयी लोगों का ले जाना !
और सुबह देखकर
गुस्से में आपका बडबडाना !!
मिटटी औ गोबर लेपकर
टाट-पट्टियों से
मुझको लपेटना !
सुनकर बातें इस तरह नीम की,
भाव विह्वल हुआ ह्रदय
यादें ताज़ा हो गईं !!
तब सकोमल नन्हा सा था, नीम मेरा !
“ नीम !! युवा हो गए हो तुम
संतोष है मुझको बहुत,फ़र्ज़ पूरा कर सका,
कर्ज धरती का,
कुछ इस तरह निपटा सका !! “
नीम से बस इतना ही कह सका !
निहारिये आप, दस सालों में
कैसे बढ़ा, जवां कितना हुआ !
सबका प्यारा, नीम मेरा !
^^ विजय जयाड़ा
पीली पत्तियों का
मेरे ऊपर बरसना !!
रुकने को मजबूर करती
प्यारे नीम की ये अदा !!
लम्बे समय से
संवाद नही हुआ था नीम से मेरा !!
संकोच था बहुत !!
हिम्मत करके पूछा नीम से
“कहो नीम !! कैसे हो ??”
हठ पुरानी अब भी
बरकरार थी नीम में
बालहठ मिश्रित नाराजगी
साफ झलक दिख रही थी नीम में
समेट टहनियों को
बतलाने लगा,
मन के उद्गारों को
इस तरह सुनाने लगा !
बात करते नहीं
पास से गुज़रते हुए ?
आपने ही तो उगाया था
मुझको प्यार से.
गुजरते हो जब भी याद आता है
मुझको बचपन मेरा !!
दातुन करने को
लोगों का तब
मेरी टहनियों को ले जाना !
क्रूर हाथों की हद से
बचाने की कोशिश में
आपका टहनियों को,
सलीखे से ऊँचा बांधना !
खाल मेरी नोंच कर
निर्दयी लोगों का ले जाना !
और सुबह देखकर
गुस्से में आपका बडबडाना !!
मिटटी औ गोबर लेपकर
टाट-पट्टियों से
मुझको लपेटना !
सुनकर बातें इस तरह नीम की,
भाव विह्वल हुआ ह्रदय
यादें ताज़ा हो गईं !!
तब सकोमल नन्हा सा था, नीम मेरा !
“ नीम !! युवा हो गए हो तुम
संतोष है मुझको बहुत,फ़र्ज़ पूरा कर सका,
कर्ज धरती का,
कुछ इस तरह निपटा सका !! “
नीम से बस इतना ही कह सका !
निहारिये आप, दस सालों में
कैसे बढ़ा, जवां कितना हुआ !
सबका प्यारा, नीम मेरा !
^^ विजय जयाड़ा
पहाड़ में ऊँचाइयों पर बुरांश (rhododendron) खिलने लगा है. बुराँश खिलने के बाद पूरा जंगल रक्तिम आभामय हो जाता है बुरांश का घंटी सदृश फूल गंध रहित होता है. बचपन में इन फूलों को खूब चाव से खाते थे होंठ लाल-लाल हो जाते थे.. उत्तराखंड जन-जीवन और संस्कृति में रचे-बसे बुरांश के फूल को, श्री रतूड़ी जी, अज्ञेय जी, पन्त जी, श्री कान्त वर्मा जी जैसे नामचीन कवियों ने अपनी रचनाओं में महत्व दिया दिया है. बुरांश को राजस फूल माना जाता है ।
प्रस्तुत है बुरांश पर एक प्रयास .... ..
बुरांश
रौद्र रूप धर आज योद्धा
ऊँचाई पर आ डटा
खुशबु छल से ले गयी हवाएं
क्रोध में
लौट अब तक आई नहीं..
रक्तवर्ण हो रहा क्रोध में
उन हवाओं के इंतज़ार में..
घंटियाँ भी सुनसान सी हैं
सुर बहका ले गया कोई..
सूनी सी अब घंटियाँ हैं !
सुर लौट आने के इंतज़ार में ..
लौटा दो छलिया हवाओं
खुशबु तुम वीर बुरांश की
सुर बहका ले जाने वाले
घंटिया बजने दो बुरांश की ...
बुरांश के रक्तिम क्रोध से
सघन वन पूरा सहमा हुआ !!
धीरे – धीरे पूरा सघन वन
वीर बुरांश के क्रोध से मानो...
आज फिर दावानल हुआ !!
.... विजय जयाड़ा 03.04.15
मेरा नया दोस्त ! ' गिल्लू '
मेरा नया दोस्त ! ' गिल्लू '
मन हुआ ! अपने नए नन्हे दोस्त गिल्लू से आपका परिचय करा दूँ...आज शाम को गिलहरी के इस बच्चे को घर के सामने घायलावस्था में कुत्तों से घिरा निरीह सा पाया !! सोचता हूँ..माँ से बिछुड़ चुकी इस छोटी सी घायल गिल्लू को माँ ममता सम वृहत स्नेह छाँव दे पाना शायद हमारे लिए संभव नहीं !! लेकिन अंजुली भर ममतामय स्नेह आलिंगन तो दे ही सकते हैं ..
अपने स्वाभाविक आवास से बिछुड़े इस बच्चे को देखकर कवि श्रेष्ठ श्री हरिवंश राय बच्चन साहब द्वारा रचित, बाल कविता " गिलहरी का घर " याद आ गयी .. महादेवी वर्मा जी की कहानी "गिल्लू" से तो आप अवश्य परिचित होंगे !!
एक गिलहरी एक पेड़ पर
बना रही है अपना घर,देख-भाल कर उसने पाया
खाली है उसका कोटर ।
कभी इधर से, कभी उधर से
कुदक-फुदक घर-घर जाती,
चिथड़ा-गुदड़ा, सुतली, तागा
ले जाती जो कुछ पाती ।
ले जाती वह मुँह में दाबे
कोटर में रख-रख आती,
देख बड़ा सामान इकट्ठा
किलक-किलककर वह गाती ।
चिथड़े-गुदडे़, सुतली, धागे ---
सब को अन्दर फैलाकर,
काट कुतरकर एक बराबर
एक बनायेगी बिस्तर ।
फिर जब उसके बच्चे होंगे
उस पर उन्हें सुलायेगी ,
और उन्हीं के साथ लेटकर
लोरी उन्हें सुनायेगी
-हरिवंशराय बच्चन
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