Monday, 27 August 2018
अमर बेल ...
अमर बेल ...
अनंत विस्तार ले चुकी
धीरे-धीरे समाज को
खुद में समा चुकी
अमर बेल के करीब से
आज फिर____
गुजरना हुआ
उन्मादित है ! आह्लादित है !
प्रमादित है, अमर बेल ! !
हरियल पेड़ की
दरकार भी नहीं अब उसे !
जाति धर्म भाषा की
जहरीली लताएँ___
पोषित कर रही हैं अब उसे !
अदृश्य है अमूर्त है
अशांति आर्तनाद !
मासूमों की सिसकियाँ
अबलाओं का रुदन !!
उसका मूर्त रूप है
समाज के ऊपर
विस्तार ले रही है अमर बेल
उन्मादित है !____
आह्लादित है अमर बेल
समाज को जकड़ती
फिरकों में बांटतीं
विस्तार ले रही हैं___
अनेकों अमर बेल !
..... विजय जयाड़ा
हिमाचली बुरांस
हिमाचली बुरांस
हिमाचल प्रदेश की चांशल पहाड़ी हरियल बुग्याली वस्त्र पहने मनमोहक लग रही थी .. हरे वस्त्रों के ऊपर बुरांस (Rhododendron) के खिले फूलों की रंगीन चुनरिया ओढ़े पहाड़ियों की चित्ताकर्षक अनुपम छटा देखकर मन मयूर नाच उठा ...
होंठ बरबस गुनगुनाने लगे ... दिल कहे रुक जा रे रुक जा... यहीं पर कहीं.....
बुरांस के फूल का ये रंग मैंने पहली बार देखा ! स्वाद चखा तो इस फूल का स्वाद भी कुछ अलग था ! यहाँ यह बुरांस प्रजाति वृक्ष की बजाय झाड़ी रूप में विकसित है !!
उत्तराखंड में उगने वाले जिस बुरांस को अब तक देखा था उस बुरांस में और इस बुरांस में समरूपता यही थी कि पुष्प विन्यास और पत्तियां एक सी ही हैं.
सुर्ख लाल बुरांस को कवियों ने अपने काव्य में जहाँ एक ओर वीरोचित उपमाओं से नवाज़ा है वहीँ ये बुरांस शालीन व सौम्य अहसास देता प्रतीत हुआ..
हालांकि परिस्थिति अनुरूप अनुकूलन जीवों की विशेषता अवश्य है ... लेकिन अपनी जड़ों से जुड़े रहना भी उतना ही महत्वपूर्ण है.
उत्तराखंड में उगने वाले जिस बुरांस को अब तक देखा था उस बुरांस में और इस बुरांस में समरूपता यही थी कि पुष्प विन्यास और पत्तियां एक सी ही हैं.
सुर्ख लाल बुरांस को कवियों ने अपने काव्य में जहाँ एक ओर वीरोचित उपमाओं से नवाज़ा है वहीँ ये बुरांस शालीन व सौम्य अहसास देता प्रतीत हुआ..
हालांकि परिस्थिति अनुरूप अनुकूलन जीवों की विशेषता अवश्य है ... लेकिन अपनी जड़ों से जुड़े रहना भी उतना ही महत्वपूर्ण है.
मरुभूमि का कल्पतरु .. खेजड़ी
मरुभूमि का कल्पतरु .. खेजड़ी
यात्रा अनुक्रम में जोधपुर, राजस्थान जाना हुआ. दर्शनीय स्थल भ्रमण के साथ-साथ प्रकृति को करीब से देखने की ललक वशात मरुभूमि के “ कल्प तरु “ खेजड़ी वृक्ष को करीब से देखने और उसके महत्व को जानने की विशेष जिज्ञासा थी.
वैज्ञानिक नाम "प्रोसेसिप-सिनेरेरिया" से जाने वाले और 4-9 मीटर तक ऊंचाई तक बढ़ने वाले खेजड़ी वृक्ष को "राजस्थान का सागवान", "रेगिस्तान का गौरव" अथवा " थार का कल्पवृक्ष " भी कहा जाता है। " राजस्थान सरकार द्वारा इस वृक्ष के सरंक्षण व संवर्धन हेतु खेजड़ी को वर्ष 1983 में राज्य वृक्ष घोषित किया गया.
अपेक्षाकृत ऊंचाई में कम तथा इमली व बबूल की तरह पत्तियों वाला कांटेदार खेजड़ी, मरुभूमि के जन-जीवन की जीवन रेखा है. इस वृक्ष के हर भाग का भौतिक उपयोग तो है ही साथ ही धार्मिक कार्यों में अग्निगर्भा व शमी नाम से खेजड़ी की लकड़ी व पत्तियों का हवन इत्यादि में उपयोग किया जाता है.
लवणीय मृदा में तीन मीटर तक गहरी जड़ें भूमि में मृदा अपरदन को रोकती हैं और मरु विस्तार को रोकने में सहायक हैं. वृक्ष की विशेषता यह भी है की जिस खेत में खेजड़ी का वृक्ष होता है वहां फसल अच्छी होती है. इस वृक्ष की दीर्घ जीविता का अनुमान इसी बात से हो जाता है कि वैज्ञानिकों ने खेजड़ी के वृक्ष की कुल आयु 5000 वर्ष मानी है. मांगलियावास गाँव, अजमेर, राजस्थान में खेजड़ी के 1000 वर्ष पुराने 2 वृक्ष भी मिले है.
माना जाता है कि खेजड़ी के पेड़ पर ही अज्ञातवास के अंतिम चरण में पांडवों ने अपने अस्त्र-शस्त्र छिपाए थे. हैं. इसी प्रकार लंका विजय से पूर्व भगवान राम द्वारा शमी (खेजड़ी) के वृक्ष की पूजा का उल्लेख मिलता है
जहाँ मैं खड़ा हूँ यह स्मारक स्थान उसी प्रेरक व ऐतिहासिक खेजड़ली गाँव के अंतर्गत है जहाँ खेजड़ी के सरंक्षण हेतु राज्य में सर्वप्रथम रामो जी बिश्नोई की पत्नि अमृतादेवी के द्वारा सन 1730 में बलिदान दिया गया. यह बलिदान भाद्रपद शुक्ल दशमी को जोधुपर के खेजड़ली गाँव के 363 लोगों ने खेजड़ी के कटान को रोकने के लिए पेड़ों से चिपक कर दिया गया. इस आन्दोलन को ही प्रथम चिपको आन्दोलन माना जाता है इस बलिदान के समय जोधपुर का शासक अभय सिंह था. अभय सिंह के आदेश पर गिरधरदास के द्वारा लोगों 363 (69 महिलाओं व 294 पुरुषों) की हत्या कर दी गई. बिश्नोई सम्प्रदाय द्वारा दिया गया यह बलिदान साका/खडाना कहलाता है. 12 सितम्बर को प्रत्येक वर्ष खेजड़ली दिवस के रूप में मनाया जाता है. इस आन्दोलन के प्रभाव से आज भी राजस्थान में कई गाँव ऐसे हैं जहाँ के लोग हरे पेड़ नहीं काटते.विश्नोई संप्रदाय के लोगों में वृक्ष मित्र होने के कारण मृतक को दफ़नाने की प्रथा है..
जेठ के महीने में भी हरा-भरा रहने वाला बहु उपयोगी खेजड़ी रेगिस्तान में गर्मियों में जब जानवरों के लिए धूप से बचने का कोई सहारा नहीं होता तब यह पेड़ छाया देता है. इसकी छाल को खांसी, अस्थमा, बलगम, सर्दी व पेट के कीड़े मारने के काम में लाते हैं. इसकी पत्तियां राजस्थान में पशुओं का सर्वश्रेष्ठ चारा हैं.
खेजड़ी का फूल मींझर और फल सांगरी कहलाता है, 14- 18 प्रतिशत प्रोटीन वाली इन फलियों से सब्जी बनाई जाती है. सांगरियों को कच्चा तोड़कर उबालकर सुखा लिया जाता है| सुखी फलियों को सूखे केर व कुमटियों के साथ मिलाकर ताजा कच्ची सांगरी से भी स्वादिष्ट शाही सब्जी बनाई जाती है. फल सूखने पर खोखा कहलाता है जो सूखा मेवा है. इसकी लकडी मजबूत होती है जो किसान के लिए जलाने और फर्नीचर बनाने के काम आती है.
सोचता हूँ अन्य वृक्षों की लकड़ियों की अपेक्षा खेजड़ी लकड़ी के उच्च ज्वलन ताप के कारण ही खेजड़ी को शास्त्रों में “ अग्नि गर्भा “ कहा गया होगा ! इस वृक्ष की जड़ से हल बनता है. अकाल सी स्थिति के समय रेगिस्तान के आदमी और जानवरों का यही एक मात्र सहारा है। सन 1899 में दुर्भिक्ष अकाल पड़ा था जिसको छपनिया अकाल कहते हैं, उस समय रेगिस्तान के लोग इस पेड़ के तनों के छिलके खाकर जिन्दा रहे.
बुजुर्गों से बात करने पर ज्ञात हुआ कि गुजरे समय में खेतों में इतने अधिक वृक्ष हुआ करते थे कि खेतों में हल लगाना मुश्किल कार्य था लेकिन आज स्थिति अलग है ! खेजड़ी के पेड़ कहीं-कहीं व दूर-दूर ही दिखाई पड़ते हैं. आज खेजड़ी का रोपण, सरंक्षण व संवर्धन की त्वरित आवश्यकता है नहीं तो मरू भूमि के कल्प तरु, खेजड़ी का लुप्त हो जाना अवश्यम्भावी है.
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