Sunday, 15 May 2016

पहाड़ का मालवाहक जहाज ...


पहाड़ का मालवाहक जहाज ...

                                        अथ श्री खच्चर उवाच ! .. एक सहज संवाद
        खाड़ी से मौण गाँव की ओर 13 किमी. चलने के बाद चढ़ाई लिए, कच्ची पक्की सड़क से गुजरना हुआ। सुहावने मौसम में कुछ देर सुस्ताने की गरज से बाइक रोकी तो सड़क किनारे घास चरते इस सजे-धजे, ह्रष्ट-पुष्ट गबरु जवान, खच्चर (Mule) पर नजर पड़ी. मालिक अपने मोबाइल पर मस्त था तो सीधे ही खच्चर (Mule) महाशय से मुखातिब हुआ !
       बातचीत शुरू हुई, काम धंधे के बारे में पूछा, जनाब के चेहरे पर संतोष मिश्रित चिंता उभर आई ! बोले " सड़क निर्माण और NGT के आदेशों से काम कुछ कम है लेकिन फिर भी गुज़र-बसर हो ही रही है , दिन भर मेहनत करके 600 रुपये तक कमा लेता हूँ " . अंतरंगता बढ़ने पर खुलकर बात शुरू हुई. महाशय दिल का दर्द बयां करते हुए कहने लगे .. " पहाड़ों पर जहाँ कोई अन्य यातायात का साधन नहीं पहुंच पाता वहाँ हम विपरीत मौसम में भी पहाड़ी दुर्गम ऊबड़-खाबड़, संकरे रास्तों पर अपनी जान हथेली पर रखकर चलते हैं और बिना थके सवारी और सामान दोनों को सुरक्षित पहुंचा देते हैं ! लेकिन फिर भी हमें घोड़ों की तरह सम्मान नहीं मिलता ! हमें अलग ही नाम दे दिया है .. खच्चर !! बात यहीं तक सीमित होती तो चल जाता ! लेकिन जब किसी मंदबुद्धि को व्यंग्य में “ खच्चर “ कहा जाता है तो हमारी आत्मा बहुत दुखती है. गधों से तो हमें ज्यादा अकल होती है कि नहीं !!" खच्चर महाशय शिकायती लहजे में आँखें तरेरते हुए बोले ! मैंने हमदर्दी में सिर हिलाया और चुपचाप सुनने में ही अपनी भलाई समझी ! आगे बोले .. " मगर जब हाड–तोड़ मेहनती इंसान को “ खच्चर की तरह काम करने वाला “ की उपमा दी जाती है तो हमें खुद के खच्चर होने पर गर्व भी होता है।"
        लगे हाथों अपनी " वैल्यू " जताते हुए यह भी बता दिया कि मालिक मुझे 90,000 रुपये में खरीदकर लाया है।
      अपनी ताकत के बारे में जनाब ने बताया कि उनका वजन 450 किग्रा तक होता है और अपने वजन का 30% तक भार आसानी से ले जा सकते हैं। साथ ही अपनी सुरक्षा में दुश्मन को आगे -पीछे -दाएँ -बाएं, हर दिशा में ताबड़तोड़ लतिया कर धूल भी चटा सकते हैं।
      आगे बात चली तो जनाब घोड़े से अपनी तुलना करते हुए कुछ तन कर कहने लगे “ बेचारा घोडा तो 25-30 साल तक ही तो जीवित रह पाता है ! हम तो जीवन की सिल्वर जुबली भी मना लेते हैं ! “
आगे कहते हैं " रही बात अपनी संख्या बढाने की !!.. तो हम इसमें दिलचस्पी नहीं रखते ! पिछले 500 सालों में मात्र 60 ऐसे मौके आये जब मादा खच्चर ने बच्चे को जन्म दिया हो “
      देश की सीमाओं की सुरक्षा की बात चली तो खच्चर महाशय गर्व से कहने लगे. “ हम देश की सीमाओं की रक्षा किसी सिपाही की ही तरह करते हैं, हाँ इतना जरुर है कि सेना में हमारे खान-पान की और देखभाल की व्यवस्था बहुत अच्छी होती है वहां हमें 26 किमी. से ज्यादा लगातार नही चलना पड़ता और हमारी पीठ पर 72 किग्रा, वजन से ज्यादा बोझ नहीं लादा जाता है.”
      खैर, अब हमने जनाब से बिरादरी की उपलब्धियों पर सवाल दागा. चरना छोड़ मुझसे सीधे मुखातिब होकर बोले “ हमारे बिरादर द्वारा दुनिया के किसी देश की सेना में सबसे लम्बी सेवा करने का विश्व रिकार्ड, हमारे पकिस्तानी बिरादर के नाम था, लेकिन हमारे हिन्दुस्तान के “ पैडुगी “ नाम के बिरादर ने सेना में 28 साल से अधिक सेवा करके उस रिकार्ड को ध्वस्त कर दिया औए गिनीज बुक में अपना नाम दर्ज करवाकर हमारा और हिन्दुस्तान का गौरव बढाया “
     सियासत पर बात चलने पर जनाब मायूस होकर बोले, " हालिया "शक्तिमान" से किए गए अमानवीय व्यवहार के बाद हमारी बिरादरी की घोड़ों जैसा सम्मान पाने की ख्वाहिश भी अब कुंद पड़ गई है ! हम ऐसे ही भले हैं !"
     मुझे आगे जाना था तो मैंने विदा लेने के अंदाज में कहा, " खच्चर भाई ! अब चलता हूँ इस तरफ फिर कभी आना हुआ तो अवश्य मिलेंगे. “ ... “खच्चर “ संबोधन सुनते ही जनाब भड़कने ही वाले थे कि मैनें भूल सुधार करते हुए तुरंत महाशय की शान में इजाफा करते हुए कहा. ओह ! सॅारी !! आप खच्चर नहीं सही मायने में “ पहाड़ के जहाज “ हैं, फिर मिलेंगे तो विस्तार से बात करेंगे अभी जल्दी में हूँ।
       अब " पहाड़ के जहाज " ने खुश होकर गर्दन में लटकी घंटियाँ बजाकर मुझे अलविदा कहा और मैं अपने गंतव्य की ओर चल दिया .


बिन पानी जग सून !



बिन पानी जग सून !

       उत्तराखंड में आजकल जहाँ एक ओर स्थानीय निवासी पेय जल समस्या से जूझ रहे हैं वहीँ ऋषिकेश-चंबा मार्ग पर मर्च्वाड़ी गाँव के पास सड़क किनारे जीविकोपार्जन के लिए झोपड़ी में चाय-पान की दुकान चलाने वाले श्री भगवती प्रसाद भट्ट जी ने बारहों मास के लिए पानी का, सीमित ही सही मगर समाधान निकाल लिया है.
        सफ़र में विश्राम का मन हुआ ! ज्यों ही इस झोपडी के पास पानी देखकर बाइक रोकी, भट्ट जी दुकान से बाहर आकर हमसे मुखातिब हुए. हालांकि जल संस्थान ने पाइप लाइन बिछायी हुई हैं लेकिन भीषण गर्मी में अधिकतर चूक गयी हैं. आस-पास कहीं पानी की व्यवस्था न थी तो सड़क किनारे पेड़ पर लटकते प्लास्टिक पाइप से बहते स्वच्छ शीतल जल को देखकर आश्चर्य हुआ !
       चाय के साथ इस पेय जल के मूल श्रोत के बारे में बात चली तो भट्ट जी ने बतया कि इस जगह से डेढ़ किमी. ऊपर पहाड़ी पर उस स्थान से जहाँ जल संस्थान द्वारा इस बहते पानी का कोई उपयोग नहीं, हार्ड प्लास्टिक पाइप द्वारा पानी यहाँ तक ला पाए है अब यहाँ पर गर्मियों में जब आसपास जल संस्थान द्वारा बिछाई गयी पाइप लाइनों में पानी आना बंद हो जाता है तो आस पास के ग्रामीण इसी जगह से पानी भरकर ले जाते हैं, गुमन्तु गुर्जर मवेशियों के साथ इस जल श्रोत के पास ही डेरा डालते हैं, पर्यटक सुस्ताने के लिए अपनी गाडी रोककर शीतल व शुद्ध जल पान का आनंद लेते हैं, चालक अपनी गाडी भी धोते हैं, स्वयं भोजन बनाकर खाने वाले यात्री अपना भोजन बनाने के लिए इसी स्थान को चुनते हैं.
      पहाड़ों पर गाँव तक पेय जल आपूर्ति के उद्देश्य से सरकार द्वारा जल संस्थान के माध्यम से जल संरक्षण व संचयन पर काफी व्यय किया जाता है लेकिन इसके बावजूद भी गर्मियों में पेयजल समस्या रूपी सुरसा मुंह फैलाये रहती है.
      मनरेगा योजनान्तर्गत ग्रामीण क्षेत्रों में पक्के रास्तों के निर्माण के बाद अब गर्मियों में पानी की किल्लत झेलते गाँवों में उचित स्थान पर वर्षा जल संचयन में स्थानीय निवासियों का सहयोग लेकर पेयजल समस्या निवारण को प्राथमिकता दी जानी चाहिए।
      हालांकि जल विशेषज्ञों की कमी नहीं !! लेकिन अपने यात्रा अनुभवों के आधार पर सोचता हूँ कि यदि राजस्थान व जल न्यूनता वाले अन्य क्षेत्रों की तरह वर्षा ऋतु में पहाड़ों से व्यर्थ बहने वाले जल को ऊंचे पहाड़ी स्थानों पर ही और ग्राम स्तर पर ग्रामीणों के सहयोग से बड़ी-बड़ी टंकियां बनाकर संग्रहण व्यवस्था की जाय तो ये संचित जल, गर्मियों में निर्बाध पेयजल आपूर्ति में सहायक हो सकता है फलस्वरूप वर्षा जल से होने वाले भूमि कटाव व वन संपदा हानि में कमी आ सकती है. साथ ही ये संग्रहित जल हर साल जंगलों में लगने वाली आग को बुझाने के उपयोग में भी लाया जा सकता है।
जल संरक्षण व संचयन वक्त की पुकार भी है 

              क्योंकि “ जल है तो कल है और बिन पानी जग सून ! “